वर्ण व्यवस्था ने धर्म की व्याख्या की और शिक्षण के क्षेत्र को ब्राह्मणों के अधीन कर दिया है इस वजह से (क्षत्रिय, वैश्य,शूद्र) वर्ण के लोगों में शैक्षणिक प्रतिभा का कुछ खास का विकास नहीं हुआ. इस कारण से पूरे संस्कृत साहित्य मे ब्राह्मणो के अलावा दूसरे वर्गो ने कुछ खास योगदान नही दे पाया.
प्राचीन काल में केवल ब्राह्मण वर्ण के लोगों का चिंतक होने की एक वजह है, चिंतन के लिए भाषा निश्चित थी और अभिव्यक्ति की पद्धति लोक भाषा न होकर देवभाषा (संस्कृत) अर्थात कुछ विशेष वर्ग की ही भाषा संस्कृत थी जो चिंतन का वाहक बनी. ब्राह्मणों के अलावा अन्य वर्णों का इस भाषा पर कुछ खास अधिकार नही था. इस कारण से धार्मिक, राजकीय और सामाजिक भाषा से ज्यादातर वंचित वर्ग अपने चिंतन की अभिव्यक्ति नहीं कर सका और ना ही प्रचार कर सका. क्योंकि प्रचार प्रसार का एकमात्र क्षेत्र व्यासपीठ था जो पूर्ण रूप से ब्राह्मणों के हाथो में था.
प्रथम (ब्राह्मण) वर्ण प्रजाहित चिंतन करके पुस्तक लिखता और लिखे हुए पुस्तकों को ऋषिमुनि के प्रभावी रंगरूप देकर व्यासपीठ पर बैठकर व्याख्यान करता. चिंतन से लेकर विचारों के प्रसारण तक केवल एक ही वर्ग पूरा काम करता है तो फिर जो परिणाम आएगा उसकी सिर्फ सहज कल्पना की जा सकती है. एक प्रकार से इन बुद्धिमानी जीवों का सर्वहित लक्ष्य हेतु एक संगठन हो गया था, जो एक साथ मिलकर एक ही जैसी व्याख्या करके अन्य प्रजा के पास से धार्मिक लाभ और महत्व बटोरता था.
इस एक अधिकार वाली चिंतन परंपरा में भगवान बुद्ध ने बड़ा बदलाव लाया. उन्होंने अन्य वर्णों के लोगों को भी चिंतक बनाया. उतना ही नहीं उन्होंने देवभाषा को हटाकर उसकी जगह लोकभाषा-मातृभाषा को महत्व दिया. बौद्ध काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्ण के लोग चिंतक बने हैं.
आडंबरयुक्त या लघुता ग्रंथि से पीड़ित समाज, चिंतन को महत्व न देकर उसकी भाषा या चिंतक की जन्मजात श्रेष्ठता को महत्व देता है. हमारे यहां इस वजह से सामान्य कक्षा के चिंतकों ने चिंतन को संस्कृत भाषा तक सीमित कर दिया और दूसरा, ऋषि मुनियों के नाम पर चिंतन पर एकाधिकार कर लिया. मेरी बात कौन सुनेगा? इसी लघुता ग्रंथि ने मेरे बोलने को अवतार, ऋषि, मुनि या आचार्य के मुख में रख दिया. अब मेरी बात मेरी ना रहकर वशिष्ठ, व्यास या राम, कृष्ण की हो गई. लोग आज भी इस बात पर लड़ते हैं कि श्रीराम ने रामायण या श्रीकृष्ण ने महाभारत में जो बोला है, क्या वह झूठ है. उनको कौन समझाए कि इन सभी ग्रंथों में राम और कृष्ण नही बोलता है अपितु उनके माध्यम से लेखक बोलता है और लेखक भी वह नहीं है जो उस ग्रंथ के लिए प्रसिद्ध है; यह तो कोई दूसरा ही है.
प्राचीन काल में केवल ब्राह्मण वर्ण के लोगों का चिंतक होने की एक वजह है, चिंतन के लिए भाषा निश्चित थी और अभिव्यक्ति की पद्धति लोक भाषा न होकर देवभाषा (संस्कृत) अर्थात कुछ विशेष वर्ग की ही भाषा संस्कृत थी जो चिंतन का वाहक बनी. ब्राह्मणों के अलावा अन्य वर्णों का इस भाषा पर कुछ खास अधिकार नही था. इस कारण से धार्मिक, राजकीय और सामाजिक भाषा से ज्यादातर वंचित वर्ग अपने चिंतन की अभिव्यक्ति नहीं कर सका और ना ही प्रचार कर सका. क्योंकि प्रचार प्रसार का एकमात्र क्षेत्र व्यासपीठ था जो पूर्ण रूप से ब्राह्मणों के हाथो में था.
प्रथम (ब्राह्मण) वर्ण प्रजाहित चिंतन करके पुस्तक लिखता और लिखे हुए पुस्तकों को ऋषिमुनि के प्रभावी रंगरूप देकर व्यासपीठ पर बैठकर व्याख्यान करता. चिंतन से लेकर विचारों के प्रसारण तक केवल एक ही वर्ग पूरा काम करता है तो फिर जो परिणाम आएगा उसकी सिर्फ सहज कल्पना की जा सकती है. एक प्रकार से इन बुद्धिमानी जीवों का सर्वहित लक्ष्य हेतु एक संगठन हो गया था, जो एक साथ मिलकर एक ही जैसी व्याख्या करके अन्य प्रजा के पास से धार्मिक लाभ और महत्व बटोरता था.
इस एक अधिकार वाली चिंतन परंपरा में भगवान बुद्ध ने बड़ा बदलाव लाया. उन्होंने अन्य वर्णों के लोगों को भी चिंतक बनाया. उतना ही नहीं उन्होंने देवभाषा को हटाकर उसकी जगह लोकभाषा-मातृभाषा को महत्व दिया. बौद्ध काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्ण के लोग चिंतक बने हैं.
आडंबरयुक्त या लघुता ग्रंथि से पीड़ित समाज, चिंतन को महत्व न देकर उसकी भाषा या चिंतक की जन्मजात श्रेष्ठता को महत्व देता है. हमारे यहां इस वजह से सामान्य कक्षा के चिंतकों ने चिंतन को संस्कृत भाषा तक सीमित कर दिया और दूसरा, ऋषि मुनियों के नाम पर चिंतन पर एकाधिकार कर लिया. मेरी बात कौन सुनेगा? इसी लघुता ग्रंथि ने मेरे बोलने को अवतार, ऋषि, मुनि या आचार्य के मुख में रख दिया. अब मेरी बात मेरी ना रहकर वशिष्ठ, व्यास या राम, कृष्ण की हो गई. लोग आज भी इस बात पर लड़ते हैं कि श्रीराम ने रामायण या श्रीकृष्ण ने महाभारत में जो बोला है, क्या वह झूठ है. उनको कौन समझाए कि इन सभी ग्रंथों में राम और कृष्ण नही बोलता है अपितु उनके माध्यम से लेखक बोलता है और लेखक भी वह नहीं है जो उस ग्रंथ के लिए प्रसिद्ध है; यह तो कोई दूसरा ही है.
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